भगवान श्रीकृष्ण का पृथ्वी पर अवतार केवल धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश के लिए हुआ था। जब उनका कार्य पूरा हो गया और द्वारका में यादव कुल के भीतर अराजकता बढ़ने लगी, तब उनका पृथ्वी-लीला समापन की ओर बढ़ा। यह कथा अत्यंत गहरी और शिक्षाप्रद है। नीचे इस घटना का क्रमबद्ध और विस्तृत वर्णन दिया गया है।


1. यादव वंश का पतन प्रारंभ होना

महाभारत युद्ध के बाद शांति का समय आया। द्वारका समृद्ध और शक्तिशाली थी। लेकिन उसी समय एक घटना घटी जो यादव कुल के विनाश का कारण बनी।

एक दिन ऋषि—नारद, दुर्वासा और विश्वामित्र—द्वारका आए। कुछ युवा यादवों ने मज़ाक में साम्ब को स्त्री के वेश में तैयार करके ऋषियों से पूछा कि वह गर्भवती है, बताइए उसके गर्भ से क्या जन्म होगा।

ऋषियों ने इस मज़ाक को अपमान समझकर कहा—
“यह लोहे का मुष्टि (गदा जैसा औजार) उत्पन्न होगा और इसी से यादव कुल का विनाश होगा।”

भय के कारण साम्ब ने उस लोहे के टुकड़े को बारीक पीसकर समुद्र में फेंक दिया। केवल एक छोटा सा कठोर लोहे का टुकड़ा बच गया जिसे फेंक दिया गया। परंतु समुद्र में फेंका गया चूर्ण तट की घास में उग आया और वह घास बाद में शक्तिशाली लोहा बनकर प्रकट हुई।

यही भविष्य में यादव कुल के विनाश का कारण बना।


2. मूसल की भविष्यवाणी पूरी होना

ऋषियों के श्राप के अनुसार द्वारका में शराब और अहंकार बढ़ने लगे। एक दिन द्वारका के अधिकांश यादव पुरुष समुद्र तट पर उत्सव मनाने गए। वहां मदिरा के प्रभाव में आपसी झगड़ा बढ़ा और वे एक-दूसरे पर उसी लोहित घास से बने मूसलनुमा डंडों से प्रहार करने लगे।

कुछ ही समय में पूरा यादव कुल आपसी संघर्ष में समाप्त हो गया।

यह देखकर श्रीकृष्ण ने समझ लिया कि पृथ्वी पर उनका कार्य पूर्ण हो चुका है और अब लीला-समापन का समय है।


3. श्रीकृष्ण का वन की ओर प्रस्थान

यादवों के विनाश के बाद श्रीकृष्ण अकेले समुद्र तट से हटकर प्रभास क्षेत्र के पास एक वन में विश्राम करने लगे। वह एक पीपल वृक्ष की छाया में बैठे थे, शरीर पर केवल पीताम्बर था और उनके चरण खुले थे।

उनकी देह दिव्य थी परन्तु एक शांत योगमय अवस्था में थी।


4. शिकारी जरा द्वारा बाण चलाना

उसी समय जरा नाम का एक शिकारी उस वन में शिकार की तलाश में आया। उसने दूर से श्रीकृष्ण के चरणों को हिरण के मुख जैसा समझा और बिना सोचे-समझे एक विषैला बाण चला दिया।

बाण सीधे श्रीकृष्ण के पैर में लगा। जरा पास आया और भगवान को देखकर भय से काँपने लगा। वह बार-बार क्षमा मांगने लगा।

श्रीकृष्ण ने शांत भाव से कहा—
“हे जरा, भय मत कर। यह सब समय के अनुसार होना ही था। पिछले जन्म में तुम बाली थे और मैंने राम रूप में तुम्हें पीछे से बाण मारा था। आज वही कर्म पूर्ण हो रहा है। यह तुम्हारा दोष नहीं है।”

यह कहकर उन्होंने उसे निर्भय कर दिया।


5. श्रीकृष्ण का देह त्याग

बाण लगने के बाद भी श्रीकृष्ण के चेहरे पर कोई पीड़ा नहीं थी। वह योग मुद्रा में बैठ गए।

उन्होंने अपनी दिव्य चेतना को ब्रह्म में स्थापित किया और धीरे-धीरे अपना देह त्याग दिया। यह मृत्यु सामान्य मनुष्य की मृत्यु नहीं थी, बल्कि योग-समाधि द्वारा शरीर-अवसान था।

शरीर त्यागते ही उनके तेजोमय रूप ने आकाश की ओर प्रस्थान किया।


6. द्वारका का समुद्र में विलय

श्रीकृष्ण के देह-त्याग के तुरंत बाद समुद्र की लहरें उठीं और पूरी द्वारका नगरी जलमग्न हो गई। यह भी पूर्व भविष्यवाणी का हिस्सा था कि जब कृष्ण पृथ्वी छोड़ देंगे, तब द्वारका समुद्र में समा जाएगी।


7. इस घटना का आध्यात्मिक अर्थ

श्रीकृष्ण की मृत्यु हमें यह सिखाती है कि

  • अवतार भी अपने कर्म का नियम निभाते हैं।

  • जब धर्म की स्थापना पूरी हो जाती है, प्रकृति अपना कार्य स्वयं करती है।

  • महान शक्ति भी समय के नियमों से बंधी होती है।

  • जीवन और मृत्यु एक चक्र है जिसमें सभी को अपने कर्म का फल भोगना पड़ता है।

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